भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूरागत गान / सियाराम शरण गुप्त

Kavita Kosh से
Rajeevnhpc102 (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:05, 4 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सियाराम शरण गुप्त |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}}<poem>दूर से आ कर…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर से आ कर तुम हे गान!
आकुल करते दृदय-मर्म्म को,
भेद लक्ष्य अनजान।

मूर्छित सी हैं दसो दिशायें,
हुई इकट्ठी अयुत निशायें,
गली गली में घाट घाट में
सन्नाटा सुनसान।

बिना साज सज्जा के सजकर
भाषा और अर्थ को तज कर,
निकल पड़े करने को सहसा
किसका अनुसंधान।

क्षीण कंठ क्या विरह विधुर हो
आह! करुण तुम मंजु मधुर हो,
किसे ज्ञात है, हममें तुममें
है कब की पहचान।

जगा वेदना को सोते से,
यों ही प्राण छोड रोते से,
लो, लय होते हो अनंत में
निर्म्मम निठुर समान,
दूर से आकर तुम हे गान!