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स्वर्ण-प्रतिमा / सियाराम शरण गुप्त

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पूर्ण विभुवर बहु वैभवधाम
राजराजेश्वर थे श्रीराम।
कहीं भी उनके संतोषार्थ
न था कोई दुर्लभ्य पदार्थ।

यज्ञ में करने को प्रतिपूर्ति,
जनकजा की सोने की मूर्ति,
बना सकते थे वे सुसमर्थ;
न था यह दुश्कर उनके अर्थ।

किंतु यह जन सब साधनहीन
अकिंचन दानों का भी हीन,
जुठावे आज कहाँ से हेम
अरे कैसे प्रकटित प्रियप्रेम।

अधूरा अपना जीवन यज्ञ
करे कैसे पूरा यह अज्ञ;
भुक्तभोगी तुम हो हे नाथ
दया कर आज तुम्ही दो साथ।

हृदय में कहीं पुण्य का लेश
किये हो यदि सुवर्ण शुभ वेश,
उसी से रच कर मूर्ति प्रसन्न
करो मखरक्षक, मख सम्पन्न।