भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तर्पण / अनीता वर्मा

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:40, 4 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब नहीं थे राम बुद्ध ईसा मोहम्मद
तब भी थे धरती पर मनुष्य
जंगलों में विचरते आग पानी हवा के आगे झुकते
किसी विश्वास पर ही टिका होता था उनका जीवन

फिर आए अनुयायी
आया एक नया अधिकार युद्ध
घृणा और पाखण्ड के नए रिवाज़ आए
धरती धर्म से बोझिल थी
उसके अगंभीर भार से दबती हुई

सभ्यता के साथ अजीब नाता है बर्बरता का
जैसे फूलों को घूरती हिंसक आंख
हमने रंग से नफ़रत पैदा की
सिर्फ़ उन दो रंगों से जो हमारे पास थे
उन्हें पूरक नहीं बना सके दिन और रात की तरह
सभ्यता की बढ़ती रोशनी में
प्रवेश करती रही अंधेरे की लहर
विज्ञान की चमकती सीढ़ियां
आदमी के रक्त की बनावट
हम मस्तिष्क के बारे में पढ़ते रहे
सोच और विचार को अलग करते रहे

मनुष्य ने संदेह किया मनुष्य पर
उसे बदल डाला एक जंतु में
विश्वास की एक नदी जाती थी मनुष्यता के समुद्र तक
उसी में घोलते रहे अपना अविश्वास
अब गंगा की तरह इसे भी साफ़ करना मुश्किल
कब तक बचे रहेंगे हम इस जल से करते हुए तर्पण.