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डोर / अरुण कमल

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मेरे पास कुछ भी तो जमा नहीं
कि ब्याज के भरोसे बैठा रहूँ
हाथ पर हाथ धर
मुझे तो हर दिन नाख़ून से
खोदनी है नहर
और खींच कर लानी है पानी की डोर
धुर ओंठ तक

जितना पानी नहीं कण्ठ में
उससे अधिक तो पसीना बहा
दसों नाख़ूनों में धँसी है मट्टी
ख़ून से छलछल उंगलियाँ
दूर चमकती है नदी
एक नदी बहुत दूर जैसे
थर्मामीटर में पारे की डोर ।