भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सींग / अरुण कमल

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:31, 5 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लगातार बढ़ रहा है सींग
घूमता तेज़ नुकीला आँख पर अन्दर
धीरे-धीरे मेरा देखना कट रहा है
डिग रही है ठौर से पुतली
मेरा चांद कट रहा है
कट रही है पतंग मेरा रास्ता रसद पानी का
जब भी ताकता पड़ता वही सामने
जितना भी चीरूँ जितना भी फेरूँ
बस वही वही एक कुछ नहीं
धब्बा भी नही काली भीत
लगातार बढ़ रहा है गेंडुर बांधता
इतना कि दोनों पलकें अब सट नहीं रहीं
आँख पर अंकुश दाबता कोआ घोंटता पुतली
मुझ ही से फूट मेरा सींग मुझ ही को भेदता ।