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रात के दो बजे / अरुण कमल
Kavita Kosh से
रात के दो बजे हैं
खाँसती जा रही है बच्ची
खाँसते-खाँसते उठ-उठ कर बैठती-छिटकती
कौंधता है रह-रह कर छाती में दर्द
कभी माँ कभी बाप की तरफ़ उमड़ती-घुमड़ती
गर्म तवे पर जल की बूंद-सी
तड़प-तड़प कर नाच रही है बच्ची
दो तट थामे बाढ़
रात के दो बजे
रात के दो बजे हैं
सुख से सोया हैं संसार
और कोई रहड़-कटे खेत की खूँटियों पर
भागता जा रहा है--
चारों तरफ़ से घेरते आ रहे हत्यारे
हाथ में छुरा लिए
चमक रहा चांद गिर रही ओस
रात के दो बजे रात के