पानी-पानी चीख रहा था
सहरा भी कितना प्यासा था
एक फटा ख़ाली-सा बादल
मुफ़लिस की ख़ुशियों जैसा था
आँखों के जंगल में आँसू
जुगनू बन कर बोल रहा था
उसका पागलपन तो देखो
अपनी मौत पे ख़ुश होता था
सब जज़्बों की धूप के ऊपर
इस्पाती इन्सान खड़ा था
सब सुनने वाले बहरे थे
जाने वो कैसा जलसा था