भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नासमझी / आकांक्षा पारे

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:58, 8 नवम्बर 2009 का अवतरण ("नासमझी / आकांक्षा पारे" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे कहने
तुम्हारे समझने के बीच
कब, फ़ासला बढ़ता गया
मेरे हर कहने का अर्थ
बदलता रहा तुम तक जा कर

हर दिन
समझने-समझाने का यह खेल
हम दोनों को ही अब
बना गया है इतना नासमझ

कि
स्पर्श के मायने की
परिभाषा एक होने पर भी
नहीं समझते उसे
हम दोनों