हर्फ़े-ताज़ा की तरह क़िस्स-ए-पारीना / फ़राज़
हर्फ़े-ताज़ा की तरह क़िस्स-ए-पारीना कहूँ
कल की तारीख़ को मैं आज का आईना कहूँ
चश्मे-साफ़ी से छलकती है मये-जाँ तलबी
सब इसे ज़हर कहें मैं इसे नौशीना कहूँ
मैं कहूँ जुरअते-इज़हार हुसैनीय्यत है
मेरे यारों का ये कहना है कि ये भी न कहूँ
मैं तो जन्नत को भी जानाँ का शबिस्ताँ जानूँ
मैं तो दोज़ख़ को भी आतिशकद-ए-सीना कहूँ
ऐ ग़मे-इश्क़ सलामत तेरी साबितक़दमी
ऐ ग़मे-यार तुझे हमदमे-दैरीना कहूँ
इश्क़ की राह में जो कोहे-गराँ आता है
लोग दीवार कहें मैं तो उसे ज़ीना कहूँ
सब जिसे ताज़ा मुहब्बत का नशा कहते हैं
मैं ‘फ़राज़’ उस को ख़ुमारे-मये-दोशीना कहूँ
क़िस्स-ए-पारीना = गुज़रा हुआ, पुराना क़िस्सा
नौशीना = शर्बत
शबिस्ताँ = शयनागार
आतिशकद-ए-सीना = सीना या छाती की भट्ठी
हमदमे-दैरीना = पुराना मित्र
कोहे-गराँ = मुश्किल पहाड़
ख़ुमारे-मये-दोशीना = ग़ुजरी रात की शराब का ख़ुमार