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पल दो पल / शशि पाधा

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जीवन के दो चार पलों में
पल दो पल ऎसे चुन लाएँ
     रिमझिम मेघा बरसें जैसे
           बूंद-बूंद नेहा बरसाएँ ।

सागर की लहरों को देखो
दौड़ किनारे मिलने आतीं
रेतीली तपती धरती को
गले लगा शीतल कर जातीं
   हम भी क्यों न सागर जैसे
       लहर - लहर में प्रेम बहाएँ ।

तरुवर की हर डाली डाली
जलती-तपती धूप सहे
झुक-झुक कर धरती को चूमे
ठंडी- ठंडी छाँव करे
      प्रेम से हम भी छू लें सबको
              स्नेह भीगा आँचल फैलाएँ ।

श्यामल तन कोकिल को देखो
कटु वचन वो भी न बोले
मीठे सुर में गीत सुना कर
कानों में मधुरस ही घोले
      रूप रंग तो बाहरी चोला
             अंतर्मन सींचें सरसाएँ ।

ढाई अक्षर का मन्तर देकर
गूढ़ बात कह गये कबीरा
प्रेम रंग में रंग कर देखो
पत्थर भी लगता है हीरा
       मीरा पीकर जोगन हो गई
          स्नेह सुधा बांटें बिखराएँ।

पल - पल जीवन घटता जाता
बीता कल फिर लौट न आता
हर पल के कर्मों का लेखा
समय लेखनी लिखता जाता
       जीवन के कागज़ पर हम भी
           प्रेम के अक्षर लिख कर जाएँ।

रिमझिम मेघा बरसें जैसे
बूंद-बूंद नेहा बरसाएँ ।