भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाना तय है / इला कुमार
Kavita Kosh से
शाम होते ही लौट आई हूँ
चिडियों से होड़ लगाकर
वहां खाना और पानी नहीं है
बुभु क्षा या तितीर्षा का नामोनिशान नहीं
आकाश न जाने किसकी छाया के अन्दर उनींदा रहता है
उख की अदम्य लालसा अनवरत खीचती हुई
उतनी दूर जाकर सुख कहाँ पाऊँगी
निर्धूम ज्योति अभी भी अनंत कालखंडों की दुरी पर
हजारों साल पहले वेफ प्रतिबिम्बों टेल दबी हुई
बीच का समय शुन्य में मिला हुआ
जाना तय है