एक दिन / इला कुमार
एक दिन वह अकेला बैठा
रचता था आकाशों के बीच अवस्थित
अपने संसार के तंतुओं को
हलकी सुन गुनाहट ओ के बीच
कौंधती है आवाज निशब्द बहसों की
कौन?
कौन कहता है ऐसी अद्भुत कथा
संबंधो के प्रयाग की
वीरोचित चंदन की तह के भीतर से उठती हैं आकुल आवाजें
पत्थर की खुचरन सी ठंडी और बेजान
जल की धारा थम गई
नकार दिया उसने बहते जाने का गुण
पूर्ण चैतन्य हवा की संजीवनी लहर वहीँ थिर गई
आकाश ने त्याग दिया
अपने विस्तृतता के एकात्म लयित गुण को
कण-कण में वेष्ठित आकाश
सघन अभेद्यता के पार टिका रह गया
निश्चल पड़ा रहा वायु का महमहाता झकोरा
थमी हुई नदी की
कठोर अबेधता के पार
रुके रहे रीते पात्र
पंचभूतों के धैर्यित गुणों पर हावी
इस अनिश्चित घबड़ाहट और व्यथा से अब
रचनी है एक निर्द्वान्दता
सीने के अन्दर हिलती रही एक साँस