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समाधि से / महादेवी वर्मा

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बीते वसन्त की चिर समाधि!
जगशतदल से नव खेल, खेल
कुछ कह रहस्य की करुण बात,
उड़ गई अश्रु सा तुझे डाल
किसके जीवन से मिलन रात?
रहता जिसका अम्लान रंग—
तू मोती है या अश्रु हार?
किस हृदयकुंज में मन्द मन्द
तू बहती थी बन नेह-धार?
कर गई शीत की निठुर रात
छू कब तेरा जीवन तुषार?
पाती न जगा क्यों मधु-बतास
हे हिम के चिर निस्पन्द भार?
जिस अमर काल का पथ अनन्त
धोते रहते आँसू नवीन,
क्या गया वही पदचिन्ह छोड़
छिपकर कोई दु:खपथिक दीन?
जिसकी तुझमें है अमिट रेख
अस्थिर जीवन के करुण काव्य!
कब किसका सुखसागर अथाह
हो गया विरह से व्यथित प्राण?
तू उड़ी जहाँ से बन उसाँस
फिर हुई मेघ सी मूर्तिमान!
कर गया तुझे पाषाण कौन
दे चिर जीवन का निठुर शाप?
किसने जाता मधुदिवस जान
ली छीन छाँह उसकी अधीर?
रच दी उसको यह धवल सौध
ले साधों की रज नयन-नीर;
जिसका न अन्त जिसमें न प्राण
हे सुधि के बन्दीगृह अजान!
वे दृग जिनके नव नेहदीप
बुझकर न हुए निष्प्रभ मलीन;
वह उर जिसका अनुरागकुंज
मुँदकर न हुआ मधुहीन दीन;
वह सुषमा का चिरनीड़ गात
कैसे तू रख पाती सँभाल!
प्रिय के मानस में हो विलीन
फिर धड़क उठे जा मूक प्राण;
जिसने स्मृतियों में हो सजीव
देखा नवजीवन का विहान;
वह जिसको पतझर थी वसन्त
क्या तेरा पाहुन है समाधि?
दिन बरसा अपनी स्वर्णरेणु
मैली करता जिसकी न सेज;
चौंका पाती जिसके न स्वप्न
निशि मोती के उपहार भेज;
क्या उसकी है निद्रा अनन्त
जिसकी प्रहरी तू मूकप्राण?