Last modified on 10 नवम्बर 2009, at 01:11

पाठक की निगाह / आशुतोष दुबे

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:11, 10 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कभी आप लिखते हैं कोई ख़त
कभी निजी डायरी
कभी महीने के खर्च का हिसाब
कभी-कभी कविताएँ भी

कभी आपको लिखना पड़ता है
स्पष्टीकरण
कभी आप बनाते हैं
किसी क्षमा-पत्र का मसौदा
फिर अचानक एक दिन पढ़ने पर
अपनी लिखी चिट्ठी
किसी भूल की तरह लगती है
खर्च का हिसाब भयभीत कर देता है
कविताएँ घोर असंतोष से भर देती हैं
निजी प्रसंगों पर निजी टिप्पणियाँ
व्याकुल कर देती हैं भीतर ही भीतर
स्पष्टीकरण के कच्चे मसौदे
भर देते हैं अपराध-बोध और ग्लानि भाव से

फिर आप उधेड़ने लगते हैं
अपने बुने हुए को
और लच्छियों को उलझने से बचाना
एक मुश्किल काम होता है

देखा आपने,
चीज़ें किस तरह बदलती हैं
पाठक की निगाह से देखने पर।