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चांद और औरत / आलोक श्रीवास्तव-२

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चांद पकड़ने को बढ़ती है एक औरत
अपनी स्मृतियों बाहर आ कर
अपने घर, अपने आंगन
अपने बचपन और अपनी युवावस्था के
तमाम वर्षों के दरमियान
रात के अकेले चांद पर मोहित स्त्री
पता नहीं कहां चली गयी है
ख़ुद से दूर न जाने किस निर्जन में

जाओ उसे खोज लाओ
तभी तुम उसे प्यार कर पाओगे
जंगलों में, वीरान रास्तों, सूने पहाड़ों या
रात में जागते किसी विशाल महानगर में
कहीं-न-कहीं तो वह होगी ही

यह तुम्हारे बगल में खड़ी स्त्री
तुम्हारे पास नहीं है
यह तो चांद की तलाश में है
और रो रही है
और तुम उसका इतना सा भी
दुख नहीं समझ पा रहे
पुरुष-प्रभुत्व और
वर्ग-शोषण के इतिहास की चारदिवारी में
संयोग से तुम्हारे पास खड़ी
इस स्वप्नदर्शी स्त्री के पास
चांद की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन तक
पहुंचानेवाला कोई निरापद रास्ता नहीं है
स्वप्न में भी नहीं

उसके पास एक लंबा सपना है
और दुख की एक विशाल रात

अभी तो वह
तुम्हारे इस प्यार को स्वीकार भर कर सकती है
जो ठीक-ठीक प्यार भी नहीं
तुम्हारी इच्छाओं और जरूरतों का
अजीब-सा समीकरण है

हां, जिस दिन वह
चांद की उलझी माया से मुक्त होगी
जिस दिन वह लौटेगी तमाम मायादेशों से
वह तुम्हें प्यार करेगी
यकीन करो चांद तब भी होगा
निर्जन पहाड़ों, जंगलों, नदियों, समुद्रों और
सोये नगरों पर फैली रात के उजास में
एक बिंब चुपचाप
उतर जायेगा ताल की गहरायी में
यकीन करो वह चांद ही होगा
और सुंदर भी !