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धूप निकली है मुद्दतों के बाद / बशीर बद्र

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याद अब ख़ुद को आ रहे हैं हम
कुछ दिनों तक ख़ुदा रहे हैं हम

आरज़ूओं के सुर्ख़ फूलों से
दिल की बस्ती सजा रहे हैं हम

आज तो अपनी ख़ामुशी में भी
तेरी आवाज़ पा रहे हैं हम

बात क्या है कि फिर ज़माने को
याद रह-रह के आ रहे हैं हम

जो कभी लौट कर नहीं आते
वो ज़माने बुला रहे हैं हम

ज़िंदगी अब तो सादगी से मिल
बाद सदियों के आ रहे हैं हम

अब हमें देख भी न पाओगे
इतने नज़दीक आ रहे हैं हम

ग़ज़लें अब तक शराब पीती थीं
नीम का रस पिला रहे हैं हम

धूप निकली है मुद्दतों के बाद
गीले जज़्बे सुखा रहे हैं हम

फ़िक्र की बेलिबास शाख़ों पर
फ़न की पत्ती लगा रहे हैं हम

सर्दियों में लिहाफ़ से चिमटे
चाँद तारों पे जा रहे हैं हम

ज़ीस्त की एक बर्फ़ी लड़की को
’नूरओ नामा’ पढ़ा रहे हैं हम

उस ने पूछा हमारे घर का पता
काफ़ी हाउस बुला रहे हैं हम

कंधे उचका के बात करने में
मुनफ़रद होते जा रहे हैं हम

चुस्त कपड़ों में ज़िस्म जाग पड़े
रूहो-दिल को सुला रहे हैं हम

कोई शोला है कोई जलती आग
जल रहे हैं जला रहे हैं हम

टेढ़ी तहज़ीब, टेढ़ी फ़िक्रो नज़र
टेढ़ी ग़ज़लें सुना रहे हैं हम

(१९७०)