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जुलूस में घायलों की कविता / हीरेन भट्टाचार्य
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मैंने ही जलाई है यह आग
जानता हूँ माँ, इस आग की लपट में
तुम्हारे रुग्ण चेहरे पर उद्भासित
हो उठेगा पृथ्वी का अद्वितीय रूप
इसीलिए, मैंने ही जलाई है यह आग।
दिन और दिन लगातार, रात की समाप्ति पर
भोर की शीतल हवा से
कितनी आनन्दित होती है मुझे प्यार कर
माँ, मैं नहीं जानता! निष्ठुर, क्षमा कर
मुझे मत छेड़ो! तुम्हारे लिए ही माँ
बहुत अर्पित किया है प्रियजनों के हृदय का रक्त
इस बार है मेरा मन्त्रपूत शरीर!
जन्म का ऋण चुकाने को, आनन्द में
मैं हू आज अधीर।
इसीलिए, मैंने ही जलाई है आग।
मूल असमिया भाषा से अनुवाद : संजीव भट्टाचार्य