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वंशी का स्वर / हीरेन भट्टाचार्य
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अन्धेरे में चलते-चलते
सहसा सुनाई पड़ा
उजाले का शंख-निनाद।
वज्र के लिए सहेजी हुई मेरी हड्डियों में
बज उठी वंशी की तान
मेरे रक्त, मेरी हड्डियों के बीच
इतने दिन वंशी छिपी हुई थी
उस पर छितरा रखा था
समय के शुष्क पत्तों को।
कितने हटाया उन पत्तों को?
किसका है वह कोमल हाथ!
मूल असमिया से अनुवाद : चिरंजीवी जैन