भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छाँड़ो मेरी बहियाँ लाल / भारतेंदु हरिश्चंद्र

Kavita Kosh से
अजय यादव (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:49, 14 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र }} <poem> छाँड़ो मेरी बहियाँ ला…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छाँड़ो मेरी बहियाँ लाल, सीखी यह कौन चाल;
हा हा तुम परसत तन, औरन की नारी।
अँगुरी मेरी मुरुक गई, परसत तन पीर भई;
भीर भई देखत सब ठाढ़ीं ब्रज-नारी।
बाट परौ ऐसी बात, मोहिं तौ नहीं सुहात;
काहे इतरात करत अपनो हठ भारी।
’हरीचंद’ लेहु दान, नाहीं तौ परैगी जान;
नैंक करौ लाज, छाँड़ौ अंचल गिरिधारी॥