भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अचानक / दुष्यन्त
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:00, 16 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दुष्यन्त }} {{KKCatKavita}} <poem> बैठे हों जब किसी लॊन में हरी …)
बैठे हों जब
किसी लॊन में
हरी दूब पर
अनायास ही चली जाती है हथेली
सर पर
तो अंगुलियां पगडंडी बनाकर
घुस जाती है बालों में
किंतु अहसास नहीं होता
उस गर्माहट का
न ही वह नरम लहजा
और में डूब जाता हूं गहरा
तुम्हारी यादों के समुद्र में।
मूल राजस्थानी से अनुवाद- मदन गोपाल लढ़ा