भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेबसी की एक नज़्म / परवीन शाकिर

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:35, 16 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परवीन शाकिर |संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या उस पर मेरा बस है
वो पेड़ घना
लेकिन किसी और के आँगन का
क्या फूल मेरे
क्या फल मेरे
साया तक छूने से पहले
दुनिया की हर ऊँगली मुझ पर उठ जायेगी
वो छत किसी और के घर की
बारिश हो कि धूप का मौसम
मेरे इक-इक दिन के दुपट्टे
आसूँ में रंगे
आहों में सुखाये जाएँगे
तहखाना-ए-गम के अन्दर
सब जानती हूँ
लेकिन फिर भी
वो हाथ किसी के हाथ में जब भी देखती हूँ
इक पेड़ की शाखों पर
बिजली सी लपकती है
इक छोटे से घर की
छत बैठने लगती है