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इक बार / जया जादवानी
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तेरी आवाज़ की ख़ुशबू
बहते दरिया की आहट
आ जिस्म की गली लकड़ी सुलगाएँ
आ कुछ ख़्वाब पकाएँ
गर्म करें इन पिंजरों को फिर
धौंकनी को फिर फूँकें
सुर्ख़रू होकर खड़े हों
इसके पहले लाजिमी है
इक बार राख हो जाएँ।