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समर्पण / रामधारी सिंह "दिनकर"
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धधका दो सारी आग एक झोंके में,
थोड़ा-थोड़ा हर रोज जलाते क्यों हो?
क्षण में जब यह हिमवान पिघल सकता है,
तिल-तिल कर मेरा उपल गलाते क्यों हो?
मैं चढ़ा चुका निज अहंकार चरणों पर,
हो छिपा कहीं कुछ और, उसे भी ले लो।
चाहो, मुझको लो पिरो कहीं माला में,
चाहो तो कन्दुक बना पाँव से खेलो।