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गाँधी / नये सुभाषित / रामधारी सिंह "दिनकर"

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(१)
छिपा दिया है राजनीति ने बापू! तुमको,
लोग समझते यही कि तुम चरखा-तकली हो।
नहीं जानते वे, विकास की पीड़ाओं से
वसुधा ने हो विकल तुम्हें उत्पन्न किया था।

(२)
कौन कहता है कि बापू शत्रु थे विज्ञान के?
वे मनुज से मात्र इतनी बात कहते थे,
रेल, मोटर या कि पुष्पक-यान, चाहे जो रचो, पर,
सोच लो, आखिर तुम्हें जाना कहाँ है।

(३)
सत्य की संपूर्णता देती न दिखलाई किसी को,
हम जिसे हैं देखते, वह सत्य का, बस, एक पहलू है।
सत्य का प्रेमी भला तब किस भरोसे पर कहे यह
मैं सही हूँ और सब जन झूठ हैं?

(४)
चलने दो मन में अपार शंकाओं को तुम,
निज मत का कर पक्षपात उनको मत काटो।
क्योंकि कौन हैं सत्य, कौन झूठे विचार हैं,
अब तक इसका भेद न कोई जान सका है।

(५)
सत्य है सापेक्ष्य, कोई भी नहीं यह जानता है,
सत्य का निर्णीत अन्तिम रूप क्या है? इसलिए,
आदमी जब सत्य के पथ पर कदम धरता,
वह उसी दिन से दुराग्रह छोड़ देता है।

(६)
हम नहीं मारें, न दें गाली किसी को,
मत कभी समझो कि इतना ही अलम है।
बुद्धि की हिंसा, कलुष है, क्रूरता है कृत्य वह भी
जब कभी हो क्रुद्ध चिंतन के धरातल पर
हम विपक्षी के मतों पर वार करते हैं।

(७)
शान्ति-सिद्धि का तेज तुम्हारे तन में है,
खड्ग न बाँहों को न जीभ को व्याल करो।
इससे भी ऊपर रहस्य कुछ मन में है,
चिंतन करते समय न दृग को लाल करो।

(८)
तुम बहस में लाल कर लेते दृगों को,
शान्ति की यह साधना निश्छल नहीं है।
शान्ति को वे खाक देंगे जन्म जिनकी
जीभ संकोची, हृदय शीतल नहीं है।

(९)
काम हैं जितने जरूरी, सब प्रमुख हैं,
तुच्छ इसको औ’ उसे क्यों श्रेष्ठ कहते हो?
मैं समझता हूँ कि रण स्वाधीनता का
और आलू छीलना, दोनों बराबर हैं।

(१०)