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अपना मन होता है / कमलेश भट्ट 'कमल'

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कवि: कमलेश भट्ट कमल

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उस पर जाने किस किसका तो बंधन होता है

अपना मन भी आखिर कब अपना मन होता है ।


तन से मन की सीमा का अनुमान नहीं लगता

तन के भीतर ही मीलों लम्बा मन होता है ।


वह भी क्या जानेगा सागर की गहराई को

जिसका उथले तट पर ही देशाटन होता है ।


अँधियारा क्या घात लगाएगा उस देहरी पर

जिस घर रोज उजालों का अभिनन्दन होता है ।


दुख की भाप उठा करती हैसुख के सागर से

ऐसा ही, ऐसा ही शायद जीवन होता है ।


हम-तुम सारे ही जिसमें किरदार निभाते हैं

पल-पल छिन-छिन उस नाटक का मंचन होता है ।


तन की आँखें तो मूरत में पत्थर देखेंगी

मन की आँखों से ईश्वर का दर्शन होता है ।