भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
परछाईं / देवेन्द्र रिणवा
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:25, 21 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= देवेन्द्र रिणवा |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> अन्धेरे स…)
अन्धेरे से बनी होती है
इसकी देह
जितना तेज़ प्रकाश
उतनी गहरी परछाईं
इतनी डरपोक और शातिर
कि आँख नहीं मिलाती
ठीक पीछे खड़ी होती है
दुबक जाती है पाँव तले
जब आ खड़ा होता है
प्रकाश माथे पर
कमज़ोर और लम्बवत्
जब हो जाता है प्रकाश
यह लम्बी हो जाती है
सुरसा की तरह