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संस्कार / रामधारी सिंह "दिनकर"

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कल कहा एक साथी ने, तुम बर्बाद हुए,
ऐसे भी अपना भरम गँवाया जाता है?
जिस दर्पण में गोपन-मन की छाया पड़ती,
वह भी सब के सामने दिखाया जाता है?

क्यों दुनिया तुमको पढ़े फकत उस शीशे में,
जिसका परदा सबके सम्मुख तुम खोल रहे?
’इसके पीछे भी एक और दर्पण होगा,’
कानाफूसी यह सुनो, लोग क्या बोल रहे?

तुम नहीं जानते बन्धु! चाहते हैं ये क्या,
इनके अपने विश्वास युगों से आते हैं,
है पास कसौटी, एक सड़ी सदियोंवाली,
क्या करें? उसी के ऊपर हमें चढ़ाते हैं।

सदियों का वह विश्वास, कभी मत क्षमा करो,
जो हृदय-कुंज में बैठ तुम्हीं को छलता है,
वह एक कसौटी, लीक पुरानी है जिस पर,
मारो उसको जो डंक मारते चलता है।

जब डंकों के बदले न डंक हम दे सकते,
इनके अपने विश्वास मूक हो जाते हैं,
काटता, असल में, प्रेत इन्हें अपने मन का,
मेरी निर्विषता से नाहक घबराते हैं।

रचनाकाल १९५० ई०