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जड़ें / केदारनाथ सिंह
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जड़ें चमक रही हैं
ढेले ख़ुश
घास को पता है
चींटियों के प्रजनन का समय
क़रीब आ रहा है
दिन भर की तपिश के बाद
ताज़ा पिसा हुआ गरम-गरम आटा
एक बूढ़े आदमी के कन्धे पर बैठकर
लौट रहा है घर
मटमैलापन अब भी
जूझ रहा है
कि पृथ्वी के विनाश की ख़बरों के ख़िलाफ़
अपने होने की सारी ताक़त के साथ
सटा रहे पृथ्वी से।