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स्वप्न-भंग / नरेन्द्र शर्मा

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वे श्याम बरुनियाँ
माया-जाल बिछाती हैं!
इच्छायें मन की
अश्रु-बूँद बन जाती हैं!
उन पलकों की पंखुरियों पर मैं चुम्बन बन खो जाता हूँ,
घनश्याम पुतलियों की रजनी में सपना बन सो जाता हूँ,
बस साँसें आती जाती हैं!
सपने की मेरी बातों का मत बुरा मानना, पाषाणी!
हँसती हो? हाँ, हँसती जाओ तुम देख हमारी नादानी!
पर मनुहारें सकुचाती हैं!
तोड़ो मत मेरा दिवा-स्वप्न, फेंको मत मेरा हृदय रत्न,
मत समझो उसका मोल नहीं, मिल जाए स्नेह जो बिना यत्न!
सीपी मोती भर लाती हैं!
लो, भंग हो रहा इन्द्रधनुष, छिनती जाती अंचल-छाया!
बीता रे, जो मधुवात-सदृश पल, उन अलकों में लहराया!
काली छायायें छाती हैं!
झुक रही रात, पंछी घायल, है कोई अपना नीड़ नहीं;
मन भी भर आता नहीं, मिले जो बूँद, बूँद दो नीर कहीं;
सूखे दृग-नद बरसाती हैं!