भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मस्तक पर ठुकी कील / चंद्र रेखा ढडवाल

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:45, 1 दिसम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


 मस्तक पर ठुकी कील

मोर हो फ़ाख़्ताओं के पैरों से नाचना
बहुत कठिन है/तब और भी कठिन
जब फ़ाख़्ताओं को देखते/तुम्हें सोचना पड़े
कि तुम्हारे पंखों का विस्तार
उचित नहीं है
कि तुम्हारे पंखों पर के
विविध रंगों की चकाचौंध
तुम्हें सौम्य नहीं रह जाने देता
कि तुम्हारी कलगी
तुम्हारे मस्तक पर ठुकी कील है
तुम्हारे चुक जाने की परिचायक.