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बैरेक से / नरेन्द्र शर्मा
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यहाँ कँटीले तार और फिर खिंचीं चार दीवार,
मरकत के गुम्बद-से लगते हरे पेड़ उस पार!
’हाँ—ना’ कहते नीम, हिलातीं शीश डालियाँ,
इमली पहने जैसे झीनी-बिनी जालियाँ!
पीपल के चौड़े पत्ते दिखते ज्यों हिलते हाथ,
दूर दूर तक धूप हँस रही, वह भी हँसते साथ!
हाथ हिलाते, पास बुलाते, शीश डुलाते मौन,
कहते—देखें पास हमारे पहले आवे कौन?
यहाँ कटीले तार और फिर खिंचीं चार दीवार,
मरकत के गुम्बद-से लगते हरे पेड़ उस पार!