भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वासन्ती / नरेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:20, 3 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा |संग्रह=मिट्टी और फूल / नरेन्द्र …)
मैं गीत लिखूँ, तुम गाओ!
मेरे बौरे रसालवन-से मन में कोयल बन जाओ!
जो दबी दबी इच्छाएँ थीं, उमड़ी हैं बन पल्लव-लाली,
भावों से भरे हृदय-सी ही काँपी-थिरकी डाली डाली!
स्वर देकर मौन मूक मुझको, मन में संगीत बसाओ!
मंजरित आम्र की मधुर गंध में उठी झूमती अभिलाषा,
पल्लव के कोमल रंगों में है झूल रही मेरी आशा;
क्या क्या मेरे मन-कानन में तुम गा गा कर बतलाओ!
मेरे रोमों से गीत खिलें, किरणें फूटें जैसे रवि से,
रसभरे पके अँगूरों-से हों मधुर शब्द मेरे कवि के,
जीवन का खारा जल मधु हो, जब तुम अधरों पर लाओ!
पतझर-वसन्त, पतझर-वसन्त--इस क्रम का होगा कहीं अंत?
हैं इने-गिने जीवन के दिन, है जग-जीवन का क्रम अनंत!
अनगाए रह जाएँगे गाने, आओ, मिल कर गाओ!