हाँ, कस-कस कर, कर प्रहार, मैं हँस हँस बारम्बार सहूँ!
बने सरल-जितना ही चाहा, उतना ही उलझा यह जीवन!
चाहा जितना ही समझाऊँ, उतना ही भरमाया है मन!
तू मनचाही करे, नियति, तो मैं अपबीती बात कहूँ!
छाया-छवि ने मोह बढाया, प्रेमी को अपनाना चाहा;
पर जब मैंने हाथ बढ़ाया छवि ने, हाय, छीन ली छाया!
अस्थि-कुलिश से जो कठोर, उस सत की अब मैं बाँह गहूँ!
जल पर किरणनृत्य-से अस्थिर दिवास्वप्न से नाता तोड़ा,
व्योम-यवनिका फाड़ फेंक दी, अचिर कल्पना से मुँह मोड़ा!
नींव हिला, तू भित्ति तोड़ दे, खँडहर हूँ मैं, सहज ढहूँ!
अन्तर्द्वन्द, द्वन्द बाहर भी, पर इसके बिन शान्ति कहाँ अब?
दे जो मुझे शक्ति ठुकरा कर, होगी मेरी भक्ति वहाँ अब!
मैं जो जीवन का अभिलाषी, नित अक्षतविश्वास रहूँ!