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द्वादशी का इन्दु / नरेन्द्र शर्मा
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अमिय के मणिपात्र-सा यह द्वादसी का इन्दु,
क्या न हिय में ढाल देगा अमिय के दो बिन्दु?
शून्य है मेरा हृदय भी, शून्य ज्यों आकाश,
क्या न मन नभ-सा बनेगा, चाँदनी का सिन्धु?
क्यों न जाने शून्य उर में विकल फिर उच्छ्वास?--
व्योम में ज्यों डोलता यह फाल्गुनी वातास!
अमिय के मणिपात्र-सा है द्वादसी का चाँद,
रिक्त है मधुपात्र-सा उर शून्य ज्यों आकाश!
पूर्णता की ओर उन्मुख शुक्लपाखी चाँद,
क्षिप्रपाँखी हृदय ने भी तोड़ डाला बाँध!
शयित बाधा बाँध पतदल, विन्ध्य ज्यों नतशीश,
और मैं भी बढ़ चला गिरि और गह्वर फाँद!
पूर्ण भी हो जायगा यह हृदय--खंडित पात्र,
अमृत-दीपक-से खिलेंगे प्राण-मन औ’गात्र!