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तेरी बातें तेरे अल्फाज़ / संकल्प शर्मा

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अब अक्सर...
तेरी बातें तेरे अल्फाज़,
यूँ मुट्ठी में दबाए फिरता हूँ।
जैसे बच्चे के हाथों में
पूरे हफ़्ते की ’जेबखर्ची’ के सिक्के।
जितना कसके पकड़ता हूँ.. कमबख्त!
फिसलते जाते हैं यूँ ही।
जैसे फिसले थे तेरे सुर्ख लबों से उस दिन,
वो जाँफरोज़ अल्फाज़ ...
वो नग्मगीन बात...

वही बातें वही अल्फाज़
जिन्हें थामे रखा था
एक मुद्दत से...

बह गए हाथ से
और छोड़ गए चन्द लकीरें

कभी फुर्सत मिले तो
फिर से एक दिन,
तुम चली आना....
इन हाथों की लकीरों से,
तुम्हें कुछ याद आएगा,
इन हाथों की लकीरों को,
ज़रा सा ग़ौर से सुनना ....

सुना है आजकल...
ये लकीरें बात करती हैं...।