भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तभी लोग जीते हैं / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
Rajeevnhpc102 (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:21, 6 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन }}<poem>सुग्गों की पाँत कौन गिनती करे इनकी …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुग्गों की पाँत
कौन गिनती करे इनकी
फिर भी हजार से कम तो नहीं होंगे।

किसान लाठी भाँजता हुआ
अपने खेत के चक्कर लगाता है
अगर वह एसा न करे
धान की एक भी बाली घर न पहुँचे।

इति भीति सभी से बचाना है
खेती को, तभी घर और घर वाले
सुख पाएँगे, खाएँगे, खेलेंगे।

बंदर, नील गाय आदि खेती पर
झुंड़ के झुंड टूट पडेंगे
फिर तो कुछ भी नहीं बचेगा।

किसान की किसानी
दिन रात में भेद नहीं करती
तभी लोग जीते हैं।