आज / नरेन्द्र शर्मा
आज मरी मिट्टी के कन भी जाग रहे बन चिनगारी,
मैंने ही क्यों आज नियति के सन्मुख यों हिम्मत हारी?
दूर अग्नि की शिखा लपकती लिखती सी कुछ नभ-पट पर,
नवयुग आया, और चाहता मैं जाना पथ से हट कर!
मेरे मन की कमज़ोरी यह, मेरे मन की लाचारी!
इतना ओछा हूँ मैं—छिन में कर लेता हूँ मन छोटा!
ओखा हूँ मैं—और नहीं तो कहता क्यों जग को खोटा?
आह न जुंबिश खाने देती मेरे मन की बीमारी!
बुझा हुआ दीपक लेकर मैं, फिरता हूँ बाहर-भीतर,
अंधकार में पा न सका कुछ, देख फिरा धरती-अंबर!
क्या जाने यह कभी कटेगी भी मेरी निशि अँधियारी?
जिसके आगे शीश झुकाया, उसने मुझे सदा ठुकराया;
मुझ तक जो शरणागत आया, उसे न मैंने ही अपनाया;
मुझे तौलना कभी न आया, बना प्रेम का व्यापारी!
पाने की आशा में मैंने अपनी भी सब निधि खोई;
अहंकार में पोषित मेरी बुद्धि ठगे शिशु-सी रोई;
पग पग पर ठोकर खाती जब मनोकामना बेचारी!
किन्तु जब की जलता हो अम्बर, दहक रही हो जब धरती,
यह छोटी सी जान बड़ी बन क्यों अहरह आहें भरती?
आज अग्नि के अंकमिलन की कर न सकूँ क्यों तैयारी?
नृत्य-निरत लपटों के पहने ताज, जल रहीं मीनारें;
ढहते दुर्ग, तड़कते गुम्बद, भूमि चूमती दीवारें!
छोटे मुँह हो बड़ी बात, जो कहूँ—’आज मेरी बारी!’
नवयुग का संकेत—लपट को नभ में हाथ हिलाने दो!
शस्यश्यामला वसुंधरा को चोट लपट की खाने दो!
तप कर ही सच्चे निकलेंगे हम जैसे भी संसारी!
जीवन को तो आज अग्नि की लपटों का ही गहना है,
मिटने में ही बनना है अब, सहना है सो लहना है,
सृजनतत्व बन कर निकलेगा तत्व आज का संहारी!
मैंने ही क्यों आज नियति के सन्मुख यों हिम्मत हारी?