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इस भाँति न छिपकर आओ / रामकुमार वर्मा
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इस भाँति न छिपकर आओ।
अन्तिम यही प्रतीक्षा मेरी
इसे भूल मत जाओ॥
रजनी के विस्तृत नभ को जब मैं दृग में भर लेता,
एक एक तारे को कितने भाव-युक्त कर देता,
उसी समय खद्योत एक आता वायायन द्वारा,
मैं क्या समझूँ, मुझे मिला उज्ज्वल संकेत तुम्हारा!
प्रियतम, मेरी स-तम निशा ही को
शशि-किरण बनाओ॥
वह उपवन फूला, पर बोलो उसमें शान्ति कहाँ है?
सुमन खिले, मुरझाये, सूखे, गिरे, वसन्त यहाँ है?
नहीं, मृत्यु ने यहाँ परिधि में बाँधा है जीवन को,
सुख तो सेवक बन रक्षित रखता है दुख के धन को।
प्रियतम, शाश्वत जीवन बन
मन में तो आज समाओ॥
इस भाँति न छिपकर आओ।