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दृग-जल-जमुना / माखनलाल चतुर्वेदी

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वे दिन भला किया जो भूले।
दृग-जल-जमुना बढ़ी किन्तु श्यामल वे चरण न पाये,
कोटि-तरंग-बाँह के पंथी, तट-मूर्च्छित फिर आये,
अब न अमित! विभ्रम दे, चल--
चल सखि कालिन्दी कूलें,
वे दिन भला किया जो भूले।
गति ने आकर कभी निहोरा, कभी प्रगति ने पाया,
पंथी! तुम उल्लास भर उठे, विकल नियति ने गाया।
तुमने हृदय निहाल कर दिया
दे सूली के झूले,
वे दिन भला किया जो भूले।
विश्वासों के विष-प्याले दे मधुर! प्रणय-घन पाले,
क्यों ढूँढो हो लाल, पुतलियों पर, निज छबि के छाले!
अब राधा से कहो न माटी
की मूरत पर फूले!
वे दिन भला किया जो भूले।

रचनाकाल: इटारसी-१९२७