भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गमे- दुनिया बहुत इज़ारशाँ है / ख़ुमार बाराबंकवी
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:25, 12 दिसम्बर 2009 का अवतरण
ग़मे-दुनिया बहुत ईज़ारशाँ है
कहाँ है ऐ ग़मे-जानाँ! कहाँ है
इक आँसू कह गया सब हाल दिल का
मैं समझा था ये ज़ालिम बेज़बाँ है
ख़ुदा महफूज़ रखे आफ़तों से
कई दिन से तबियत शादुमाँ है
वो काँटा है जो चुभ कर टूट जाए
मोहब्बत की बस इतनी दासताँ है
ये माना ज़िन्दगी फ़ानी है लेकिन
अगर आ जाए जीना, जाविदाँ है
सलामे-आख़िर अहले-अंजुमन को
'ख़ुमार' अब ख़त्म अपनी दास्ताँ है