भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निरंजन धन तुम्हरो दरबार / कबीर

Kavita Kosh से
RAM SARAN YADAV (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:16, 13 दिसम्बर 2009 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।

जहां न तनिक न्याय विचार ।।

रंगमहल में बसें मसखरे, पास तेरे सरदार ।

धूर धूप में साधो विराजें, होये भवनिधि पार ।।

वेश्या आेढे खासा मखमल, गल मोतिन का हार ।

पतिव्रता को मिले न खादी सूखा ग्रास अहार ।।

पाखंडी को जग में आदर, सन्त को कहें लबार ।

अज्ञानी को परं ब्रहम ज्ञानी को मूढ़ गंवार ।।

सांच कहे जग मारन धावे, झूठन को इतबार ।

कहत कबीर फकीर पुकारी, जग उल्टा व्यवहार ।।

निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।