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अन्धेरे के बाहर एक निगाह / शलभ श्रीराम सिंह

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अन्धेरे के बाहर एक निगाह है
देखती हुई अन्धेरे और एकान्त के सारे दृश्य

भावनाओं के खेल में पराजित एक स्त्री
एक पराजित पुरुष का वरण कर रही है वहाँ

वहाँ अतीत की कलंक-कथाओं को भूल कर
आश्रय दे रहा है एक मन दूसरे मन को

एक शरीर दूसरे शरीर के समीप पहुँच रहा है धीरे-धीरे
उभरता हुआ अन्धेरे के बाहर की उस निगाह में

एक नए दृश्य-बंध की ओर मुड़ रही है जो
जहाँ एक प्यारे और पुराने सम्बन्ध को
अलविदा कह रहा है कोई हमेशा-हमेशा के लिए
 

रचनाकाल : 1995, विदिशा

शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रविन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।