भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुलवधू का चरखा / माखनलाल चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:46, 14 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी |संग्रह=समर्पण / माखनलाल चतु…)
चरखे, गा दे जी के गान!
इक डोरा-सा उठता जी पर,
इक डोरा उठता पूनी पर,
दोनों कहते बल दे, बल दे,
टूट न जाये तार बीच में,
टूट न जाये तान,
चरखे, गा दे जी के गान!
उजली पूनी, उजले जीवन,
है रंगीन नहीं उनका मन,
यह सितार-सा तारों का धन,
तार-तार भावी का स्वर-धन,
चिर-सुहाग पहचान।
चरखे, गा दे जी के गान!
तार बने, तारों की उलझन,
तार बने जीवन की पहरन,
ढाँके इज्जत, ढाँके दो मन,
दो डोरों के गठबन्धन से,
बँधे हृदय-महमान,
चरखे, गा दे जी के गान!
रचनाकाल: खण्डवा-१९४०