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क्या सावन, क्या फागन / माखनलाल चतुर्वेदी

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क्यों स्वर से ध्वनियाँ उधार लूँ?
क्यों वाचा के हाथ पसारूँ?
मेरी कसक पुतलियों के स्वर,
बोलो तो क्यों चरण दुलारूँ?
स्वर से माँगूँ भीख--
कि हिलकोरों में हूक उठे,
वाचा से गुहार करता हूँ
देवि, कलेजा दूख उठे।
बिना जीभ के श्यामा मेरी
उभय पुतलियाँ बोल रही हैं,
बोलों से जो रूठ चुके
ऐसे रहस्य ये खोल रहीं हैं।
क्यों ऊँचे उड़ने को माँगूँ,
मैं कोयल के पर अनमोले?
जब कि वायु में मेरे सपने
अग-जग भूमण्डल पर डोले।
कौन आसरा ले कि सुरभि के--
स्तन से उतरे अमृत-धारा,
जब कि फुदक उट्ठे बछड़ा वह
कामधेनु का राज-दुलारा।
भले ओंठ हों बन्द किन्तु--
अन्तर की गाँठें खुल जाती हैं,
क्या सावन, क्या फागन--
जब सूझें बारह-मासा गाती हैं!

रचनाकाल: खण्डवा-१९५२