भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहीं न कहीं / संज्ञा सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:17, 18 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संज्ञा सिंह }} {{KKCatKavita‎}} <poem> कुहासा गहरा हुआ है जब-जब …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुहासा
गहरा हुआ है जब-जब
धुएँ के समंदर में बदलती गई है सुबह

धूप
जब-जब चढ़ी है अपनी ऊँचाई पर
सोने की चादर की तरह झलमलाई है दोपहर

अन्धेरा
उतरा है आख़िरी गहराई तक जब-जब
काजल-काजल होता चला गया है परिदृश्य

फिर भी-फिर भी
रहा है सूरज कहीं न कहीं
कहीं न कहीं रही है थोड़ी बहुत छाँव
थोडा बहुत उजाला रहा है कहीं न कहीं तब भी


रचनाकाल : 1994, जौनपुर