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हो भले ही जाए सत्ता मांसाहारी / विनोद तिवारी
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हो भले ही जाए सत्ता मांसाहारी
वंचितों का भाग्य फिर भी राग-दरबारी
निर्दयी अफ़सर हैं आदमखोर व्यापारी
और डाकू हो गए हैं वर्दियाँधारी
रोज़ विज्ञापन दिखे कर्त्तव्य-निष्ठा के
जबकि भ्रष्टाचार है राष्ट्रीय बीमारी
एक अंधी दौड़ में शामिल हुआ है देश
शिष्यगण पथ-भ्रष्ट हैं गुरु स्वेच्छाचारी
नष्ट होते जा रहे संबंध मृदुता के
शर्करा भी अब तो होती जा रही खारी