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वे लौटाकर गरल गए / संतोष कुमार सिंह

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हमने प्रेम लुटाया जग में, तन-मन से भी सरल भए।
हमने उनको अमृत बाँटा, वे लौटा कर गरल गए।।

अपना काम भले ही बिगड़े, उनका भला ज़रूरी था।
सब ही लाभ उठाया करते, मेरी इस मज़बूरी का।।
पर मेरी ख़ुशियों के अरमाँ, समय-समय वे कुचल गए।

दरियादिल वाले जो ठहरे, हम प्यासों के नीर बने।
जो दरिया में डूब रहे थे, उनके भी हम तीर बने।।
हमने सदा सुगंध बिखेरी, फूल समझ वे मसल गए।

मरहम हमने सदा लगाया, सबकी फटी बिबाई में।
उनकी ख़ुशियाँ भी लौटाईं, जो रोए तनहाई में।।
अहसानों की उस मंडी में, छुरा भौंक वे निकल गए।

हमने संतों की पगरज भी, अपने भाल लगाई थी।
उनकी वाणी भरा प्रेमरस, दिखती नहीं बुराई थी।।
विश्वासों के मन मन्दिर वे, चुभा चीमटा टहल गए।

बारम्बार मिले धोखे तो, अपना मन भी कुन्द हुआ।
परमारथ का कृत्य त्याग कर, मैं भारी स्वछन्द हुआ।।
हमने पूछा नहीं किसी को, फिर भी देकर दखल गए।