भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओ चिरैया / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
Kavita Kosh से
ओ चिरैया !
कितनी गहरी
हुई है तेरी प्यास !
जंगल जलकर
ख़ाक हुए हैं
पर्वत –घाटी
राख हुए हैं ,
आँखों में
हरदम चुभता है
धुआँ-धुआँ आकाश ।
तपती
लोहे-सी चट्टानें
धूप चली
धरती पिंघलाने
सपनों में
बादल आ बरसे
जागे हुए उदास ।
उड़ी है
निन्दा जैसी धूल,
चुभन-भरे
पग-पग हैं बबूल
यही चुभन
रचती है तेरी –
पीड़ा का इतिहास ।