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वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी / परवीन शाकिर

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वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी
जो तेरे बगैर कट रही थी

उसको जब पहली बार देखा
मैं तो हैरान रह गयी थी

वो चश्म थी सहरकार बेहद
और मुझपे तिलस्म कर रही थी

लौटा है वो पिछले मौसमों को
मुझमें किसी रंग की कमी थी

सहरा की तरह थीं ख़ुश्क आंखें
बारिश कहीं दिल में हो रही थी

आंसू मेरे चूमता था कोई
दुख का हासिल यही घड़ी थी

सुनती हूं कि मेरे तज़किरे पर
हल्की-सी उस आंख में नमी थी

ग़ुरबत के बहुत कड़े दिनों में
उस दिल ने मुझे पनाह दी थी

सब गिर्द थे उसके और हमने
बस दूर से इक निगाह की थी

गु़रबत=प्रवास