रोज़ ही मैं सोचती / चंद्र रेखा ढडवाल
रोज़ ही मैं सोचती तुम्हें राक्षस के महल में बंद राजकुमारी की बाँदी की कहानी सुनाऊँगी रोज़ ही मैं शुरू करती महल की खुली बारादरी में कितने ही झरोखे थे एक में गौरैया ने घर बना लिया और दूसरे में... तुम्हारी आँखों में हँसी कौंधती चिड़िया फुर्र से उड़ जाती नहीं रे बारादरी में तो झरोखे ही नहीं थे बंद थी वह/ द्वार था एक जिसकी साँकल किसी धातु से टूटती नहीं थी महल पुराना था... साँकल भी पुरानी... भुरभुराकर टूटी नहीं... तुम बात उड़ा देना चाहते द्वार कहाँ था / मैं कहती जादू से बंद थी राजकुमारी जिसके संगमरमरी पैरों में झाँझरें थीं उनमें घुँघरू थे / तुम पूछते और नृत्य के अक्स तुम्हारी आँखों में उतरने लगते कि मैं कहती / पर वह नाचती नहीं थी राक्षस के भय से तुम उस राक्षस को पहचानती हो... तुम्हारी आँखें लाल हो जातीं तुम उस महल का पता जानती हो... तुम्हारे नथुने फड़कने लगते मैं विकल्प ढूँढती राजकुमारी तो थी ही नहीं देवता की मनौती के लिए राक्षस ने बलि चढ़ा दिया तुम्हारी आँखों की लाली कमल हो पानी में उतरने लगती शतदल जिस कमल की हर पँखुड़ी में राजकुमारी की तस्वीर होती एक-एक सूरज-सी जिस एक-एक तस्वीर की आँच से रत्ती-रत्ती मैं पिघलने लगूँ उससे पूर्व ही मैं कहती नहीं! नहीं! राजकुमारी को तो छुड़ा ले गया एक राजकुमार बहुत दूर का एकाएक ही तुम ऊब जाते सुबह भी तो होगी... रोज़ ही मैं सोचती... </poem>